Thursday 25 June 2015

कब होगा प्रलय जानिए रहस्य -


पुराणों में सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव, उत्थान और प्रलय की बातों को सर्गों में विभाजित किया गया है। हालांकि पुराणों की इस धारणा को विस्तार से समझा पाना कठिन है, लेकिन यहां संक्षिप्त में क्रमबद्ध इसका विवरण दिया जा रहा है। पुराणों के अनुसार विश्व ब्रह्मांड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-
1. गर्भकाल : करोड़ों वर्ष पूर्व संपूर्ण धरती जल में डूबी हुई थी। जल में ही तरह-तरह की वनस्पतियों का जन्म हुआ और फिर वनस्पतियों की तरह ही एक कोशीय बिंदु रूप जीवों की उत्पत्ति हुई, जो न नर थे और न मादा।
2. शैशव काल : फिर संपूर्ण धरती जब जल में डूबी हुई थी तब जल के भीतर अम्दिज, अंडज, जरायुज, सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीवों की उत्पत्ति हुई।
3. कुमार काल : इसके बाद पत्र ऋण, कीटभक्षी, हस्तपाद, नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति हुई। इनमें मानव रूप वानर, वामन, मानव आदि भी थे।
4. किशोर काल : इसके बाद भ्रमणशील, आखेटक, वन्य संपदाभक्षी, गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि प्राणियों का विकास हुआ।
5. युवा काल : फिर कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रक्रिया हजारों वर्षों तक चलती रही।
6. प्रौढ़ काल : वर्तमान में प्रौढ़ावस्था का काल चल रहा है, जो लगभग विक्रम संवत 2042 पूर्व शुरू हुआ माना जाता है। इस काल में अतिविलासी, क्रूर, चरित्रहीन, लोलुप, यंत्राधीन प्राणी धरती का नाश करने में लगे हैं।
7. वृद्ध काल : माना जाता है कि इसके बाद आगे तक साधन भ्रष्ट, त्रस्त, निराश, निरूजमी, दुखी जीव रहेंगे।
8. जीर्ण काल : फिर इसके आगे अन्न, जल, वायु, ताप सबका अभाव क्षीण होगा और धरती पर जीवों के विनाश की लीला होगी।
9. उपराम काल : इसके बाद करोड़ों वर्षों आगे तक ऋतु अनियमित, सूर्य, चन्द्र, मेघ सभी विलुप्त हो जाएंगे। भूमि ज्वालामयी हो जाएगी। अकाल, प्रकृति प्रकोप के बाद ब्रह्मांड में आत्यंतिक प्रलय होगा।

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धर्म : तीन प्रकार के विश्वासी लोग -

मनु स्मृति, पुराण आदि स्मृति ग्रंथों में उन लोगों के बारे में बताया गया है, जो हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं रखते हैं और वे धर्म के बारे में अपनी मनमानी व्याख्या बनाकर समाज में भ्रम फैलाते हैं। ऐसे लोग न तो धर्म में विश्‍वास रखते हैं लेकिन जताते हैं कि विश्‍वास रखते हैं और न ही इन लोगों से राष्ट्रसेवा की कामना की जा सकता है।

इसी तरह वे ईश्वर को लेकर भी गफलत में रहते हैं। उन्हें कभी लगता है कि ईश्वर जैसी कोई शक्ति जरूर है और कभी लगता है कि नहीं है। वे उनका दर्शन खुद ही गढ़ते रहते हैं। ऐसे लोग कभी धर्म या ईश्वर का विरोध करते हैं तो कभी तर्क द्वारा उनका पक्ष भी लेते पाए जाते हैं। ऐसे विकारी और विभ्रम में जीने वाले लोगों के बारे में धर्मशास्त्रों में विस्तार से जानकारी मिलती है और ऐसे लोग मरने के बाद किस तरह की गति को प्राप्त होते हैं, यह ‍भी विस्तार से बताया गया है। आओ हम जानते हैं कुछ इसी टाइप के लोगों के बारे में।

अविश्‍वासी लोग : पहले प्रकार के विश्‍वासी लोग वे होते हैं, जो स्वयं सहित किसी पर भी विश्‍वास नहीं करते हैं। ऐसे लोग जिंदगी के दुखदायी मोड़ पर कभी भी किसी पर भी विश्वास कर बैठते हैं। ऐसे लोग अपनी जवानी में नास्तिक होते हैं। हो सकता है कि वे दिखावे के लिए ऐसे हों। खुद को आधुनिक घोषित करने के लिए ऐसे हों। लेकिन ऐसे लोग खुद पर भी भरोसा नहीं करते और ईश्वर पर भी नहीं। ये लोग मंदिर नहीं जाते। यदि वे कट्टर अविश्‍वासी हैं, तो उम्र के ढलान के अंतिम दौर में उन्हें पता चलता है कि सब कुछ खो दिया, अब ईश्‍वर हमें अपनी शरण में ले लें। ये अधार्मिक होते हैं।

आत्मविश्‍वास : ऐसे बहुत से लोग हैं, जो दूसरों पर नहीं, खुद पर ज्यादा भरोसा करते हैं। ये दूसरे प्रकार के विश्‍वासी लोग हैं। ये नास्तिक भी हो सकते हैं और तथाकथित आस्तिक भी। ये मंदिर जा भी सकते हैं और नहीं भी। इनके विचार बदलते रहते हैं। ये कभी किसी को सत्य मानते हैं, तो कभी अन्य किसी को तर्क द्वारा सत्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। ये नास्तिकों के साथ नास्तिक और आस्तिकों के साथ आस्तिक हो सकते हैं। ये लोग मानते हैं कि ईश्‍वर के बगैर भी जीवन की समस्याओं को वे स्वयं सुलझा सकते हैं। ये भी अधार्मिक होते हैं।

विश्‍वासी : अधिकतर लोगों को स्वयं और परमेश्वर पर भरोसा नहीं होता। वे कबूल करते हैं कि उनमें कोई सामर्थ्य या ज्ञान नहीं है, परंतु उनको विश्वास भी नहीं होता कि परमेश्वर उनके लिए कार्य करेगा। वे समझते हैं कि हम तो तुच्छ हैं, जो परमेश्वर होगा तो हमारे लिए कार्य नहीं करेगा। ऐसे विश्वासी भी प्रार्थनारहित जीवन जीते हैं। वे प्रार्थना भी करते हैं तो उनकी प्रार्थना में कोई विश्वास नहीं होता। विश्‍वास है लेकिन खुद को हीन समझते हैं।

दूसरे प्रकार के विश्‍वासी भी होते हैं, जो संपूर्ण रूप से परमेश्वर के होने में विश्वास तो करते ही हैं और वे अपने अच्छे और बुरे सभी कर्मों को परमेश्वर को ही समर्पण कर देते हैं। वे जरा भी भय, अविश्वास और भ्रम की भावना में नहीं जीते हैं। उनका विश्वास होता है कि परमेश्वर से बढ़कर कोई शक्ति नहीं और वह सभी को भरपूर रूप से आशीर्वाद देने वाला है। परमेश्वर कभी किसी का बुरा नहीं करता चाहे कोई कितना ही बुरा क्यों न हो। आदमी को उसके बुरे कर्मों या पापों की सजा तो स्वत: ही प्रकृति दे देती है।

ऐसे विश्‍वासी मानते हैं कि परमेश्वर हमेशा हमारे साथ है। हम जितना विनम्र होंगे वह उतना करीब होगा। हम जितना धार्मिक होंगे, वह हमारे उतना करीब होगा।

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जानिए पुरुषोत्तम मास में क्या करें और क्या न करें -


पुरुषोत्तम मास में नहीं करना चाहिए यह काम....
आषाढ़ शुक्ल एकम से पुरुषोत्तम मास शुरू हो गया है। इस माह को अधिक मास, मलमास, आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इस अवधि में सभी शुभ कार्य त्याज्य रहेंगे।

जिन दैविक कर्मों को सांसारिक फल की प्राप्ति के निमित्त प्रारंभ किया जाए, वे सभी कर्म इस माह में वर्जित कहे गए हैं। 
जैसे तिलक, विवाह, मुंडन, गृह आरंभ, गृह प्रवेश, यज्ञोपवीत या उपनयन संस्कार, निजी उपयोग के लिए भूमि, वाहन, आभूषण आदि का क्रय करना, संन्यास अथवा शिष्य दीक्षा लेना, नववधू का प्रवेश, देवी-देवता की प्राण-प्रतिष्ठा, यज्ञ, वृहद अनुष्ठान का शुभारंभ, अष्टाकादि श्राद्ध, कुआं, बोरिंग, तालाब का खनन आदि का त्याग करना चाहिए।

इस माह में विशेष कर रोग निवृत्ति के अनुष्ठान, ऋण चुकाने का कार्य, शल्य क्रिया, संतान के जन्म संबंधी कर्म, सूरज जलवा आदि, गर्भाधान, पुंसवन, सीमांत जैसे संस्कार किए जा सकते हैं। 

* इस माह में यात्रा करना, साझेदारी के कार्य करना, मुकदमा लगाना, बीज बोना, वृक्ष लगाना, दान देना, सार्वजनिक हित के कार्य, सेवा कार्य करने में किसी प्रकार का दोष नहीं है। इस माह में व्रत, दान, जप करने का अवश्य फल प्राप्त होता है। 

जानिए पुरुषोत्तम मास में क्या खाएं, क्या न खाएं....
पुरुषोत्तम मास में भगवान श्रीकृष्‍ण, श्रीमद्‍भगवतगीता, प्रभु श्रीराम और भगवान विष्‍णु की उपासना की जा‍ती है। इस माह उपासना करने का अपना अलग ही महत्व है। इस मास के दौरान जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं इस मास में खाने-पीने की चीजों का बहुत महत्व है। इस माह तमोगुणयुक्त पदार्थों का सेवन करना शास्त्रों में मना है। 

आइए जानते हैं इस माह किन-किन चीजों का अपनाएं और किन-किन चीजों से परहेज रखें। 
इस माह कोई भी व्यक्ति यदि गेंहू, चावल, मूंग, जौ, मटर, तिल, ककड़ी, केला, आम, घी, सौंठ, इमली, सेंधा नमक, आंवला आदि का भोजन करें तो उसे जीवन में कम शारीरिक कष्ट होता है।   
उक्त पदार्थ या उससे बने पदार्थ उसके जीवन में सात्विकता की वृद्धि करते हैं। अत: इस माह उपरोक्त पदार्थों का सेवन अवश्य ही करना चाहिए।  

क्या न खाएं :- 
इस माह में उड़द, लहसुन, प्याज, राई, मूली, गाजर, मसूर की दाल, बैंगन, फूल गोभी, पत्ता गोभी, शहद, मांस, मदिरा, धूम्रपान, मादक द्रव्य आदि का सेवन करने से तमोगुण की वृद्धि का असर जीवनपर्यंत रहता है। अत: पुरुषोत्तम मास में इन चीजों का खान-पान वर्जित कहा गया है। 

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Friday 19 June 2015

जानिए अमरनाथ गुफा से जुडे अनजाने रहस्य -


आदि देव महादेव स्वयंभू पशुपति नीलकंठ भगवान आशुतोष शंकर भोले भंडारी को सहस्त्रों नामों से स्तुति कर पुकारा जाता है। शास्त्रों में जगह-जगह पर भगवान शिव के महात्म्य का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में भी शिवजी का गुणगान मिलता है। श्री अमरनाथ धाम एक ऐसा शिव धाम है जिसके संबंध में मान्यता है कि भगवान शिव साक्षात श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते हैं।

बाबा बर्फानी से जुडे हैरान कर देने वाले तथ्य -
धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टी से अति महत्वपूर्ण श्री अमरनाथ यात्रा को कुछ शिव भक्त स्वर्ग की प्राप्ति का माध्यम बताते हैं तो कुछ लोग मोक्ष प्राप्ति का। श्री अमरनाथ यात्रा हमारी एकता का भी प्रतीक माना जता है। पावन गुफा में बर्फीली बूंदों से बनने वाला हिमशिवलिंग ऐसा दैवी चमत्कार है जिसे देखने के लिए हर कोई लालायित रहता है और जो देख लेता है वो धन्य हो जाता है।

भारत के कोने-कोने से और विदेशों से असंख्य शिव भक्त लगभग 14 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित श्री अमरनाथ की गुफा में प्रकृति के इस चमत्कार के दर्शन करने के लिए अनेकों बाधाएं पार करके भी पहुंचते हैं। श्री अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती पीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि यहां भगवती सती का कंठ भाग गिरा था।

कश्मीर घाटी में स्थित पावन श्री अमरनाथ गुफा प्राकृतिक है। यह पावन गुफा लगभग 160 फुट लम्बी, 100 फुट चौड़ी और काफी ऊंची है। कश्मीर में वैसे तो 45 शिव धाम, 60 विष्णु धाम, 3 ब्रह्मा धाम, 22 शक्ति धाम, 700 नाग धाम तथा असंख्य तीर्थ हैं पर श्री अमरनाथ धाम का सबसे अधिक महत्व है।

काशी में लिंग दर्शन एवं पूजन से दस गुणा, प्रयाग से सौ गुणा, नैमिषारण्य तथा कुरुक्षेत्र से हजार गुणा फल देने वाला श्री अमरनाथ स्वामी का पूजन है। देवताओं की हजार वर्ष तक स्वर्ण पुष्प मोती एवं पट्टआ वस्त्रों से पूजा का जो फल मिलता है, वह श्री अमरनाथ की रसलिंग पूजा से एक ही दिन में प्राप्त हो जाता है।

श्री अमरनाथ गुफा में शिव भक्त प्राकृतिक हिमशिवलिंग के साथ-साथ बर्फ से ही बनने वाले प्राकृतिक शेषनाग, श्री गणेश पीठ व माता पार्वती पीठ के भी दर्शन करते हैं। प्राकृतिक रूप से प्रति वर्ष बनने वाले हिमशिवलिंग में इतनी अधिक चमक विद्यमान होती है कि देखने वालों की आंखों को चकाचौंध कर देती है।

हिमशिवलिंग पक्की बर्फ का बनता है जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बर्फ ही देखने को मिलती है। मान्यता यह भी है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। भगवान शिव ने माता पार्वती को सृष्टिआ की रचना इसी अमरनाथ गुफा में सुनाई थी।

गुफा की खोज -
इस गुफा की खोज बूटा मलिक नामक एक बहुत ही नेक और दयालु एक मुसलमान गडरिए ने की थी। वह एक दिन भेड़ें चराते-चराते बहुत दूर निकल गया। एक जंगल में पहुंचकर उसकी एक साधू से भेंट हो गई। साधू ने बूटा मलिक को कोयले से भरी एक कांगड़ी दे दी। घर पहुंचकर उसने कोयले की जगह सोना पाया तो वह बहुत हैरान हुआ। उसी समय वह साधू का धन्यवाद करने के लिए गया परन्तु वहां साधू को न पाकर एक विशाल गुफा को देखा। उसी दिन से यह स्थान एक तीर्थ बन गया।

एक बार देवर्षि नारद कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के दर्शनार्थ पधारे। भगवान शंकर उस समय वन विहार को गए हुए थे और पार्वती जी वहां विराजमान थीं। पार्वती जी ने देवर्षि के आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा-देवी! भगवान शंकर, जो हम दोनों से बड़े हैं, के गले में मुंडमाला क्यों है? भगवान शंकर के वहां आने पर यही प्रश्र पार्वती जी ने उनसे किया। भगवान शंकर ने कहा-हे पार्वती! जितनी बार तुम्हारा जन्म हुआ है, उतने ही मुंड मैंने धारण किए हैं।

पार्वती जी बोलीं -
मेरा शरीर नाशवान है, मृत्यु को प्राप्त होता है परन्तु आप अमर हैं, इसका कारण बताने का कष्ट करें। भगवान शंकर ने कहा -यह सब अमरकथा के कारण है। इस पर पार्वती जी के हृदय में भी अमरत्व प्राप्त करने की भावना पैदा हो गई और वह भगवान से कथा सुनाने का आग्रह करने लगीं।


भगवान शंकर ने बहुत वर्षों तक टालने का प्रयत्न किया परन्तु अंतत: उन्हें अमरकथा सुनाने को बाध्य होना पड़ा। अमरकथा सुनाने के लिए समस्या यह थी कि कोई अन्य जीव उस कथा को न सुने। इसलिए शिव जी पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्रि) का परित्याग करके इन पर्वत मालाओं में पहुंच गए और श्री अमरनाथ गुफा में पार्वती जी को अमरकथा सुनाई।

श्री अमरकथा गुफा की ओर जाते हुए वह सर्वप्रथम पहलगाम पहुंचे, जहां उन्होंने अपने नंदी (बैल) का परित्याग किया। उसके बाद चंदनबाड़ी में अपनी जटा से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील पर पहुंच कर उन्होंने गले से सर्पों को भी उतार दिया। प्रिय पुत्र श्री गणेश जी को भी उन्होंने महागुणस पर्वत पर छोड़ देने का निश्चय किया। फिर पंचतरणी नामक स्थान पर पहुंच कर शिव भगवान ने पांचों तत्वों का परित्याग किया।

इसके पश्चात ऐसी मान्यता है कि शिव-पार्वती ने इस पर्वत शृंखला में तांडव किया था। तांडव नृत्य वास्तव में सृष्टिआ के त्याग का प्रतीक माना गया। सब कुछ छोड़ अंत में भगवान शिव ने इस गुफा में प्रवेश किया और पार्वती जी को अमरकथा सुनाई। किंवदंती के अनुसार रक्षा बंधन की पूर्णिमा के दिन जो सामान्यत: अगस्त के बीच में पड़ती है, भगवान शंकर स्वयं श्री अमरनाथ गुफा में पधारते हैं।

ऐसा भी ग्रंथों में लिखा मिलता है कि भगवान शिव इस गुफा में पहले पहल श्रावण की पूर्णिमा को आए थे इसलिए उस दिन को श्री अमरनाथ की यात्रा को विशेष महत्व मिला। रक्षा बंधन की पूर्णिमा के दिन ही छड़ी मुबारक भी गुफा में बने हिमशिवलिंग के पास स्थापित कर दी जाती है।

श्री अमरनाथ गुफा में बर्फ से बने शिवलिंग की पूजा होती है। इस सम्बन्ध में अमरेश महादेव की कथा भी मशहूर है। इसके अनुसार आदिकाल में ब्रह्म, प्रकृति, अहंकार, स्थावर (पर्वतादि) जंगल (मनुष्य) संसार की उत्पत्ति हुई। इस क्रमानुसार देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, दानव आदि की उत्पत्ति हुई।

इस तरह नए प्रकार के भूतों की सृष्टिआ हुई परन्तु इंद्रादि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में हुए थे। देवता भगवान सदाशिव के पास आए क्योंकि उन्हें मृत्यु का भय था। भय से त्रस्त सभी देवताओं ने भगवान भोलेनाथ की स्तुति कर मृत्यु बाधा से मुक्ति का उपाय पूछा। भोलेनाथ स्वामी बोले-मैं आप लोगों की मृत्यु के भय से रक्षा करूंगा। कहते हुए सदाशिव ने अपने सिर पर से चंद्रमा की कला को उतार कर निचोड़ा और देवगणों से बोले, यह आप लोगों के मृत्युरोग की औषधि है

उस चंद्रकला के निचोडऩे से पवित्र अमृत की धारा बह निकली। चंद्रकला को निचोड़ते समय भगवान सदाशिव के शरीर से अमृत बिंबदु पृथ्वी पर गिर कर सूख गए। पावन गुफा में जो भस्म है, वह इसी अमृत ङ्क्षबदु के कण है। सदाशिव भगवान देवताओं पर प्रेम न्यौछावर करते समय स्वयं द्रवीभूत हो गए और देवताओं से कहा-देवताओ! आपने मेरा बर्फ का लिंग शरीर इस गुफा में देखा है। इस कारण मेरी कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा।

अब आप यहीं अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाएं। आज से मेरा यह अनादि लिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश के नाम से विख्यात होगा। भगवान सदाशिव देवताओं को ऐसा वर देकर उस दिन से लीन होकर गुफा में रहने लगे। भगवान सदाशिव महाराज ने देवताओं की मृत्यु का नाश किया, इसलिए तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ है।

मनुष्य श्री अमरनाथ जी की यात्रा करके शुद्धि को प्राप्त करता है तथा शिवलिंग के दर्शनों से भीतर-बाहर से शुद्ध होकर धर्म, अर्थ, काम वचन तथा मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। अमरनाथ धाम पहुंचना सौभाग्य की बात है। वहां भगवान शिव के दर्शन करने से सर्वसुख की प्राप्ति होती है। बाबा बर्फानी की गुफा में प्रवेश करके भगवान शिव की साक्षात उपस्थिति का एहसास होता है।

जय बाबा अमरनाथ जय बाबा बर्फानी हर हर महादेव.....

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Monday 8 June 2015

जानिए किस देवता का वाहन क्या है और क्यों है -

हिंदू धर्म में विभिन्न देवताओं का स्वरूप अलग-अलग बताया गया है। हर देवता का स्वरूप उनके आचरण व व्यवहार के अनुरूप ही हमारे धर्म ग्रंथों में वर्णित है। स्वरूप के साथ ही देवताओं के वाहनों में विभिन्नता देखने को मिलती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार अधिकांश देवताओं के वाहन पशु ही हैं।आप भी जानिए किस देवता का वाहन क्या है और क्यों है -
भगवान शंकर का वाहन बैल -
धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शंकर का वाहन बैल है। बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है। वह शक्तिशाली होने के बावजूद शांत एवं भोला होता है। वैसे ही भगवान शिव भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुए भी परम शांत एवं इतने भोले हैं कि उनका एक नाम ही भोलेनाथ जगत में प्रसिद्ध है। भगवान शंकर ने जिस तरह काम को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त कि थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता। उसका काम पर पूरा नियंत्रण होता है। 
भगवान श्रीगणेश का वाहन मूषक -
भगवान श्रीगणेश का वाहन है मूषक अर्थात चूहा। चूहे की विशेषता यह है कि यह हर वस्तु को कुतर डालता है। वह यह नही देखता की वस्तु आवश्यक है या अनावश्यक, कीमती है अथवा बेशकीमती। इसी प्रकार कुतर्की भी यह विचार नही करते की यह कार्य शुभ है अथवा अशुभ। अच्छा है या बुरा।
वह हर काम में कुतर्कों द्वारा व्यवधान उत्पन्न करते हैं। श्रीगणेश बुद्धि एवं ज्ञान के देवता हैं तथा कुतर्क मूषक है, जिसे गणेशजी ने अपने नीचे दबा कर अपनी सवारी बना रखा है। यह हमारे लिए भी शिक्षा है कि कुतर्कों को परे कर उनका दमन कर ज्ञान को अपनाएं।
देवी दुर्गा का वाहन शेर -
शास्त्रों में देवी दुर्गा का वाहन सिंह यानी शेर बताया गया है। शेर एक संयुक्त परिवार में रहने वाला प्राणी है। वह अपने परिवार की रक्षा करने के साथ ही सामाजिक रूप से वन में रहता है। वह वन का सबसे शक्तिशाली प्राणी होता है, किंतु अपनी शक्ति को व्यर्थ में व्यय नही करता। आवश्यकता पडऩे पर ही उसका उपयोग करता है।
देवी के वाहन शेर से यह संदेश मिलता है कि घर की मुखिया स्त्री को अपने परिवार को जोड़कर रखना चाहिए तथा व्यर्थ के कार्यों में अपनी बुद्धि को न लगाकर घर को सुखी बनाने के लिए लगातार प्रयास करना चाहिए।
भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ -
भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ है। इसे पक्षियों का राजा भी कहते हैं। गरुड़ की विशेषता है कि यह आसमान में बहुत ऊंचाई पर उड़कर भी धरती के छोटे-छोटे जीवों पर नजर रख सकता है। उसमें अपरिमित शक्ति होती है। 
वैसे ही भगवान विष्णु सबका पालन करने वाले तथा प्रत्येक जीव का ध्यान रखने वाले होते हैं। उनकी नजर सदा प्रत्येक जीव पर होती है। उन पर सबकी रक्षा का भार भी है। इसलिए वह परम शक्तिशाली हैं। 
लक्ष्मी का वाहन हाथी एवं उल्लू -
माता लक्ष्मी का एक वाहन सफेद रंग का हाथी है। हाथी परिवार के साथ मिल-जुलकर रहने वाला सामाजिक एवं बुद्धिमान प्राणी है। उनके परिवार में मादाओं को प्राथमिकता दी जाती है तथा सम्मान किया जाता है। हाथी हिंसक प्राणी नही होता। उसी तरह अपने परिवार वालों को एकता के साथ रखने वाला तथा अपने घर की स्त्रियों को आदर एवं सम्मान देने वालों के साथ लक्ष्मी का निवास होता है। 

लक्ष्मी का वाहन उल्लू भी होता है। उल्लू सदा क्रियाशील होता है। वह अपना पेट भरने के लिए लगातार कर्म करता रहता है। अपने कार्य को पूरी तन्मयता के साथ पूरा करता है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति रात-दिन मेहनत करता है, लक्ष्मी सदा उस पर प्रसन्न होती हैं तथा स्थाई रूप से उसके घर में निवास करती हैं। 

हनुमानजी का आसन पिशाच -
हनुमानजी प्रेत या पिशाच को अपना आसन बनाकर उस पर बैठते हैं। इसी को वह अपने वाहन के रूप में भी प्रयोग करते हैं। पिशाच या प्रेत बुराई तथा दूसरों का भय एवं कष्ट देने वाले होते हैं। इसका अर्थ है कि हमें कभी भी बुराई को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। 
सरस्वती का वाहन हंस -
मां सरस्वती का वाहन हंस है। हंस का एक गुण होता है कि उसके सामने दूध एवं पानी मिलाकर रख दें तो वह केवल दूध पी लेता हैं तथा पानी को छोड़ देता है। यानी वह सिर्फ गुण ग्रहण करता है व अवगुण छोड़ देता है। देवी सरस्वती विद्या की देवी हैं। गुण व अवगुण को पहचानना तभी संभव है, जब आप में ज्ञान हो। इसलिए माता सरस्वती का वाहन हंस है।
भगवान कार्तिकेय का वाहन मोर -
भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय देवताओं के सेनापति कहे जाते हैं। इनका वाहन मोर है। धर्म ग्रंथों के अनुसार कार्तिकेय ने असुरों से युद्ध कर देवताओं को विजय दिलाई थी। अर्थात इनका युद्ध कौशल सबसे श्रेष्ठ है। अब यदि इनके वाहन मोर को देखें तो पता चलता है कि इसका मुख्य भोजन सांप है। सांप बहुत खतरनाक प्राणी है। इसलिए इसका शिकार करने के लिए बहुत ही स्फूर्ति और चतुराई की आवश्यकता होती है। इसी गुण के कारण मोर सेनापति कार्तिकेय का वाहन है।
यमराज का वाहन भैंसा -
यमराज भैंसे को अपने वाहन के रूप में प्रयोग करते हैं। भैंसा भी सामाजिक प्राणी होता है। भैंसों के झुंड के सदस्य मिलकर एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। उनका रूप भयानक होता है और उनमें शक्ति भी बहुत होती है, लेकिन वे इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते। इसका अर्थ है कि यदि हम अपने परिवार के साथ मिल-जुलकर रहें तो बड़ी समस्याओं का सामना भी आसानी से कर सकते हैं। अत: यमराज उसको अपने वाहन के तौर पर प्रयोग करते हैं।
गंगा का वाहन मगर -
धर्म ग्रंथों में माता गंगा का वाहन मगरमच्छ बताया गया है। इससे अभिप्राय है कि हमें जल में रहने वाले हर प्राणी की रक्षा करनी चाहिए। अपने निजी स्वार्थ के लिए इनका शिकार करना उचित नहीं है, क्योंकि जल में रहने वाला हर प्राणी पारिस्थितिक तंत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इनकी अनुपस्थिति में पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ सकता है।

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